स्याम कर मुरली अतिहिं बिराजति।
परसति अधर सुधारस बरसति, मधुर मधुर सुर बाजति।
लटकत मुकुट, भौंह-छबि मटकति, नैन-सैन अति राजति।
ग्रीव नवाइ अटकि बंसी पर कोटि मदन-छबि लाजति।
लोल कपोल झलक कुंडल की, यह उपमा कछु लागत।
मानहुँ मकर सुधारस क्रीड़त, आपु-आपु अनुरागत।
बृंदाबन बिहरत नँद-नंदन, ग्वाल सखा सँग सोहत।
सूरदास प्रभु की छबि निरखत, सुर-नर-मुनि सब मोहत।।645।।