स्यामा-बदन देखि हरि लाज्यौ।।
अहै अपूर्ब जानि जिय लघुता, खीन इंदु याही दुख भज्यौ।।
क्रीड़त कुंज-अटा रजनी-मुख, प्रेम-मुदित नवसत अंग साज्यौ।
बिधु लच्छन जानत सुर नर सब, मृगमद-तिलक देखि सो लाज्यौ।।
बिथकित रथ चक्रित अवलोकन, सुंदरि-सँग हरि-राज बिराज्यौ।
बिस्मय मिटी ससि पेखि समीपहि, कहि अब सूर उभय हरि गाज्यौ।।1193।।