कंदुक केलि करति सुकुमारी।
अति सूछम कटि तट आडे़ जिमि, बिसद नितंब पयोधर भारी।।
अंचल चंचल, फटी कंचुकी, बिलुलित बर कुच-सटी उघारी।
मनु नव जलद बंध कीनौ बिधु, निकसी नभ कसली अनियारी।।
तिलक तरल, ताटंक निकट तट, उभय परस्पर सोभ सिगारी।
जलरुह हंस मिले मनु नाचत, ब्रज-कौतुक वृषभानु-दुलारी।।
मुक्तावलि कौ हार लोल गति, ता पर लटपटाति लट कारी।
तामैं सो लर मनौ तंरगिनी, निसिनायक तम मोचन हारी।।
तरु कंकन-किंकिनि-नुपूर-छबि, निसा-पान सम दुति रत नारी।
श्रीगोपाल लाल उर लाई, बलि बलि सूर मिथुन-कृत भारी।।1194।।