सो कहा जु मैं न कियौं (जो) सोइ चित्त धरिहौ।
पतित-पावन-बिरद साँच (तौ) कौन भाँति करिहौ।
जब तैं जग जनम लियौ, जीव नाम पायौ।
तब तैं छुटि औगुन इक नाम न कहि आयौ।
साधु-निंदक, स्वाद-लँपट, कपटी, गुरु-द्रोही।
जेते अपराध जगत, लागत सब मोहीं।
गृह-गृह प्रति द्वार फिरयौ तुमकौ प्रभु छाँड़े।
अंध अंध टेकि चलै, क्यौं न परै गाड़े।
सुकृति-सुचि-सेवकजन काहि न जिय भावै।
प्रभु को प्रभुता यहै जु दीन सरन पावै।
कमल-नैन, करुनामय सकल-अँतरजामी।
बिनय कहा करै सूर कूर, कुटिल, कामी।।।124।।