दीन कौ दयाल सुन्यौ, अभय-दान-दाता।
साचो बिरुदावलि, तुम जग के पितु माता।
व्याघ-गोध-ग निका-गज इनमैं को ज्ञाता।
सुमिरत तुम आए तहँ, त्रिभुवन बिख्यात।
केसि-कंस दुष्ट मारि, मुष्टिक कियौ घाता।
धाए गजराज-काज, केतिक यह बाता।
तीनि लोक बिभव दियौ तंदुल के खाता।
सरबस प्रभु रीझि देत तुलसी कै पाता।
गौतम की नारि तरी नैंकु परसि लाता।
और को है तारिबे कौं, कहौ कृपा-ताता।
मांगत है सूर त्यागि जिहि तन-मन राता।
अपनी प्रभु भक्ति देहु जासौं तुम नाता।।।123।।
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