सोचि जिय पवन-पूत पछिताइ -सूरदास

सूरसागर

नवम स्कन्ध

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राग धनाश्री


 
सोचि जिय पवन-पूत पछिताइ।
अगम अपार सिंधु दुस्तर तरि, कहा कियौ मैं आइ?
सेवक कौ सेवापन एतौ, आज्ञाकारी होइ।
बिन आज्ञा मैं भवन पजारे, अपजस करिहैं लोइ।
वै रघुनाथ चतुर कहियत हैं अंतरजामी सोइ।
या भयभीत देखि लंका मैं, सीय जरी मति हाइ।
इतनी कहत गगनबानी भई, हनू सोच कत करई।
चिरंजीवि सीता तरुवर तर, अटल न कबहूँ टरई।
फिरि अवलोकि सूर सुख लीजै, पुहुमी रोम न परई।
जाकैं हिय-अंतर रघुनंदन सो क्यौं पावक जरई॥99॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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