लंका हनूमान सब जारी।
राम-काज सीता की सुधि लगि, अंगद-प्रीति विचारी।
जा रावन की सकति तिहूँ पुर, कोउ न आाज्ञा टारी।
ता रावन कैं अछत अछयसुत-सहित सैन संहारी।
पूँछ बुझाइ गए सागर-तट जहँ सीता की बारी।
करि दंडवत प्रेम पुलकित ह्वै, कह्यौ, सुनि राघव-प्यारी।
तुम्हंरेहिं तेज-प्रताप रही बचि, तुम्हरी यहै अटारी।
सूरदास स्वामी के आगैं, जाइ कहौं सुख भारी॥100॥