सूरसागर षष्ठ स्कन्ध पृ. 239

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सूरसागर षष्ठ स्कन्ध-239

विनय राग

415.राग बिलावल - अजामिलोद्धार
जम-दूतनि कौं इतहिं निवारयौ। वा भय तैं मोहिं इनहिं उबारयौ।
तब मन माहिं आनि बैराग। पुत्र -कलत्र- मोह सब त्याग।
हरि-पद सौं उन ध्यान लगायौ। तातकाल बैकुंठ सिधायौ।
अंतकाल जो नाम उचारै। सो सब अपने पापनि जारै।
ज्ञान-विराग तुरत तिहिं होइ। सूर बिष्नु-पद पावै सोइ।। 4 ।।

416.राग बिलावल - श्रीगुरु-महिमा
हरि हरि,हरि हरि, सुमिरन करौ। हरि चरनारबिंद उर धरौ।
हरि-गुरु एक रूप नृप जानि। यामैं कछु संदेह न आनि।
गुरु प्रसन्न, हरि परसन होइ। गुरु कैं दुखित दुखित हरि जोइ।
कहौं सो कथा, सुनौ चित धार। कहै- सुनै सो तरै भव पार।
इंद्र एक दिन सभा मँझारि। बैठयौ हुतौ सिंहासन डारि।
सुर, रिषि , सब गंधर्वे तहँ आए। पुनि कुबेरहू तहाँ सिधाए।
सुर-गुरुहू तिहिं औसर आयौ। इंद्र न तिहिं उठि सीस नवायौ।
सुर-गुरु, जानि गर्व तिहिं भयौ। तहं तै फिरि निज आस्रम गयौ।
सुर-पति तब लाग्यौ पछितान। मैं यह कहा कियो अज्ञान।
पुनि निज गुर-आस्रम चलि गयौ। पै सुर-गुरु दरसन नहिं दयौ।
यह सुनि असुर इंद्र-पुर आइ। कियौ इंद्र सौं जुद्ध बनाइ।
इंद्र-सहित तब सब सुर भागे। आस्रम अपने सवहिनि त्यागे।
पुनि सब सुर ब्रह्मा पै जाइ। कह्यौ वृतांत सकल, सिर नाइ।
ब्रह्मा कह्मौ, बुरौ तुम कियौ। निज गुरु कौं आदर नहिं दियौ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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