सूरसागर षष्ठ स्कन्ध पृ. 238

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सूरसागर षष्ठ स्कन्ध-238

विनय राग

415.राग बिलावल - अजामिलोद्धार
नाम सुनत त्यौं पाप पराहिं। पापी हू बैकुंठ सिधाहिं।
यह सुनि दूत चले खिसियाइ। कह्यौ तिन धर्मराज सौं जाइ।
अब लौं हम तुमहीं कौं जानत। तुमहीं कौ दँड-दाता मानत।
आजु गह्यौ हम पापी एक। तिन भय मान्यौ हमकौ देख।
नारायन सुत-हेतु उचारयौ। पुरुष चतुरभुज हमै निवारयौ।
उनसौं हमरौ कछु न बसायौ। तातैं तुमकौ आनि सुनायौ।
औरौ दँड-दाता कोउ आहि। हमसौ कयौं न बतावौ ताहि?
धर्मराज करि हरि कौ ध्यान। निज दूतनि सौं कह्यौ बखान।
नारायन सबके करतार। पालन अरू पुनि करत संहार।
ता सम दुतिया और न कोइ। जो चाहै सो साजै सोइ।
ताकौ तन जब नाम उचारयौ। तब हरि-दूतनि तुम्हैं निवारयौ।
हरि के दूत जहाँ- तहाँ रहै। हम तुम उनकी सोध न लहैं।
जो-जो मुख हरि-नाम उचारैं। हरि -गन तिहिं-तिहिं तुरत उधारैं।
नाम महातम तुम नहिं जानौ। नाम-महातम सुनौ, बखानौं।
ज्यौं त्यौं कोउ हरि-नाम उच्चरै। निस्चय करि सो तरै पै तरै।
जाके गृह मैं हरि-जन जाइ। नाम कीरतन करै सौ गाइ।
जद्यपि वह हरि-नाम न लेइ। तद्यपि हरि तिहिं निज-पद देइ।
कैसौहू पापी किन होइ। राम-नाम मुख उचरै सोइ।
तुम्हरौ नहीं तहाँ अधिकार। मैं तुमसौं यह कहौं पुकार।
अजामील हरि-दूतनि देखि। मन मैं कीन्हौ हर्ष विसेषि।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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