197.राग आसावरौ
हुरि जू, मोसौ पतित न आन।
मन-क्रम-वचन पाप जे कीन्हे, तिनकौ नाहि प्रमान।
चित्रगुप्त जम-द्वार लिखत हैं, मेरे पातक झारि।
तिनहूँ त्राहि करी सुनि आँगुन, कामद दीन्हे डारि।
श्रौ नि कौं जम कै अनुसासन, किंकर कोटिक घावैं ।
सुनि मेरो अपराध-अधमई, कोऊ निकट न आवैं ।
हौं ऐसो, तुम वैसे पावन, गावत हैं जे तारे ।
अवगाहौं पूरन गुन स्वामी, सूर से अधम उधारे।
198.राग धनाश्री
मोसौ पतित न और हरे ।
जानत हौ प्रभु अंतरजामी, जे मैं कर्म करे ।
ऐसौ अंध, अधम अविवेकी, खोटनि करत खरे ।
विपयी भजे, विरक्त न सेए, मन धन-धाम धरे ।
ज्यौं माखी्, मृगमद-मंडित-तन परिहरि, पूय परै ।
त्यौं मन मूढ़ विषय-गुंजा गहि, चिंतामनि बिसरै ।
सूर पतित, तुम पतित-उधारन, बिरद कि लाज धरे।