195.राग धनाश्री
जन यह कैसे कहै गुसाई ?
तुम बिनु दीनबंधु, जादवपति, सब फोकी ठकुराई।
अपने से कर-चरन-नैन-मुख अपनी सी बुधि पाई।
काल-कर्म-बस फिरत सकल प्रभु, तेऊ हमरी नाई।
पराधीन, पर बदन निहारत, मानत मूढ़ बड़ाई।
हँसै हँसत, बिलखैं बिलखत हैं, ज्यौं दर्पन मैं झाई।
लिये दियौ चाहैं सब कोऊ, सुनि समुरथ जदुराई।
देव सकल व्यापार परस्पर, ज्यौं पसु-दूध-चराई।
तुम बिनु और न कोउ कृपानिधि, पावै पीर पराई।
सूरदास के त्रास हरन कौं कृपानाथ-प्रभुताई।
196.राग देवगंधार
इक कौं आनि ठेलत पाँच।
करूनामय, कित जाउँ कृपानिधि, बहुत नचायौ नाच।
सबै कूर मोसौं ॠन चाहत, कहौ कहा तिन दीजै !
बिना दियै दुख देत दयानिधि, कहौ कौन बिधि कीजै !
थाती प्रान तुम्हारी मोपै जनमत हीं जो दीन्ही ।
सो मैं बाटि दई पाँचनि कौं, देह जमानति लीन्ही ।
मन राखैं तुम्हरे चरननि पै, नित नित जो दुख पावैं ।
मुकरि जाइ, कै दीन बचन सुनि, जमपुर बाँधि पठावैं ।
मुकरि जाइ, कै दीन बचन सुनि, जमपुर बाँधि पठावै ।
लेखौ करत लाखही निकसत, को गनि सकत अपार ।
हीरा जनम दियौ प्रभु हमकौं, दीन्ही बात सम्हार ।
गीता-वेद-भागवत मैं प्रभु, यौं बोले हैं आथ ।
जन के निपट निकट सुनियत हैं, सदा रहत हौ साथ ।
जब जब अधम करी अधमाई, तब तब टोक्यौ नाथ ।
अब तौ मोहिं बोलि नहिं आवै, तुमसौ क्यौं कहौं नाथ ।
हौं तौ जाति गँवार, पतित हौं, निपट निलज, खिसियानौ ।
तब हँसि कह्यौ सूर प्रभु सो तो, मोहूँ सुन्यौ घटानौ।