183.राग सोरठ
जौ प्रभु , मेरे दोष बिचारैं।
करि अपराध अनेक जनम लौं, नख-सिख भरो बिकारैं।
पुहुमि पत्र करि सिंधु मस नौ गिरि-मसि कौं लै डारैं।
सुर-तरूवर की साख लेखिनी, लिखत सारदा हारैं।
पतित उधारन बिरद बुलावैं, चारौं बेद पुकारैं।
सूर स्याम हौं पतित सिरोमनि, तारि सकैं तौ तारैं।
184.राग सोरठ
हमारी तुमकौं लाज हरी !
जानत हौ प्रभु, अंतरजामी, जो मोहि माँझ परी।
अपनैं औगुन कहँ लौं वरनौं, पल पल धरी धरी।
अति प्रपंच की मोट बाँधिकै अपनैं सीस धरी।
खेवनहार न खेवट मेरैं, अब मो नाव अरी।
सूरदास प्रभु, तब चरननि की आस लागि उबरी।