सूरसागर प्रथम स्कन्ध पृ. 82

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सूरसागर प्रथम स्कन्ध-82

विनय राग


165.राग सारंग
अब धौं कहो, कौन दर आउँ ?
तुम जगपाल, चतुर चिंतामनि, दीनबंधु सुनि नाउँ ।
माया कपट-जुवा, कौरव-सुत, लोभ, मोह, मद भारौ ।
परबस परौ सुनौ करूनामय, मम मति-तिय अब हारी ।
क्रोध-दुसासन गहे लाज-पट, सर्व अंध-गति मेरी ।
सुर, नर, मुनि, कोउ निकट न आवत, सूर समुझि हरि-चेरी।

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166.राम मारू
मेरी तौ गति-मति तुम, अनतहिं दुख पाऊँ !
हौं कहाइ तेरौ, अब कौन कौ कहाऊँ !
कामधेनु छाँड़ि कहा अजा लै दुहाऊँ !
हय गयंद उतरि कहा गर्दभ-चढि धाऊँ ?
कंचन-मनि खोलि डारि, काँच गर बँधाऊँ ?
कुमकुम कौ लेप मेटि, काजर सुख लाऊँ ?
पाटंबर-अंबर तजि, गूदरि पहिराऊँ ?
अंब सुफल छाँड़ि, कहा सेमर कौं धाऊँ ?
सागर की ल‍हरि छाँढि, छीलर न्‍हाऊँ ?
सूर कूर, आँधरौ, मैं द्वार परयौ गाऊँ ?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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