सूरसागर प्रथम स्कन्ध पृ. 71

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सूरसागर प्रथम स्कन्ध पृ. 71

विनय राग


143.राग धनाश्री
हरि, हौं ऐसो अमल कमायौ।
साबिक जमा हुती जो जोरी, मिनजालिक तल ल्‍यायौ।
वासिल बाकी, स्‍याहा मुजमिल, सब बधर्म की बाकी।
चित्रगुप्‍त सु होत मुस्‍तौफी, सरन गहूँ मैं काकी।
मोहरिल पांच साथ करि दीणे, तिनकी बड़ी विपरीत।
जिम्‍में उनके, मांगै, यह तौ बड़ी अनीति।
पांच-पचीस साथ अगवानी, सब मिलि काज वगारे।
सुनी तगीरी, बिसरि गई सुधि, मो तजि भए नियारे।
बढ़ौ तुम्‍हार बरामद हूँ कौ लिखि कीनौ है साफ।
सूरदास की यहै बीनती, दस्‍तक कीजै माफ।

144.राग सारंग
हरि, हौं सब पतितनि कौ राजा।
निंदा पर-मुख पूरि रह्यौ जग, यह निसान नित बाजा।
तृष्‍ना देसअरु सुभट मनोरथ, इंद्री खड़ग हमारी।
मंत्री काम कुमति दीबे कौ, क्रोध रहत प्रतिहारो।
गज-अहंकार चडयौ दिग विजयी, लोभ-छत्र-करि सीस।
फौज्‍ असत-संगति की मेरै, ऐसौ हौं मैं ईस।
मोह-मया बंदी गुन गावत, मागध दोष-अपार।
सूर पाप कौ गढ़ दृढ़ कीन्‍हौ, मुहकम लाइ किवार।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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