सूरसागर प्रथम स्कन्ध पृ. 70

Prev.png

सूरसागर प्रथम स्कन्ध-70

विनय राग


141.राग कान्‍हरौ
हरि, हौं सब पतितनि-पतितेस।
और न मरि करिबे कौ बूजौ, महामोह मम देस।
आसा कै सिंहासन बैठयौ, दंभ-छत्र सिर तन्‍यौ।
अपजस अति नकीब कहि टेरयौ सब सिर आयसु मान्‍यौ।
मंत्री काम-क्रोंध निज दोऊ अपनी अपनी रीति।
दविध-दंद रहै निसि-बासर, उपजावत बिवरीति।
मोदी लोभ, खवास मोह के , द्वारपाल अहंकार।
पाट बिरध ममता है मेरै, माण कौ अधिकार।
दासी तृष्‍ना भ्रमत टहल-हित, लहत न छिन विश्राम।
अनाचार-सेवक सौं मिलिकै करत चबाइनि काम।
बाजि मनोरथ, गर्व मत्त गज, असत-कुमत रथ-सूत।
पायक मन, बानैत अधीरज, सदा दुष्‍ट-मति दूत।
गढ़वै भयौ नरकपति मोसौं, दीन्‍हे रहत किवार।
सेना साथ बहुत भाँतिन की, कीन्‍हे पाप अपार।
निंदा जग उपहास करत, मग बंदीजन जस गावत।
हठ, अन्‍याय, अधर्म, सूर नित नौबत द्वार बजावत।

इस पद के अनुवाद के लिए यहाँ क्लिक करें


142.राग धनाश्री
सांचौ सो लिखहार कहावै।
काया-ग्राम मसाहत करिकै, जमा बांधि ठहरावै।
मन-महतो करि कैद अपने मैं, ज्ञान-जहतिया लावै।
मांडि मांडि खरिहान क्रोध कौ, पोता-भजन भरावै।
बट्टा काटि कसूर भरम कौ, फरद तलै लै डारै।
निहचै एक असल पै राखै, टरै न कबहूँ टारै।
करि अवारजा प्रेम प्रीति कौ, असल तहां खतियावै।
दूजे करज दूरि करि दैयत, नैकु न तामैं आवै।
मुजमिल जोरै ध्‍यान कुल्‍ल कौ, हरि सौं तहं लै राखै।
निर्भय रुपै लोभ छांडिकै, सोई वारिज राखै।
जमा-खरच नीकैं करि राखै, लेखा समुभि बतावै।
सूर आपु गुजरान मुहासिब, लै जवाब पहुँचावै।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः