सूरसागर प्रथम स्कन्ध पृ. 66

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सूरसागर प्रथम स्कन्ध पृ. 66

विनय राग


133.राग धनाश्री
पतित पावन हरि, बिरद तुम्‍हारौ कौनै नाम धरयौ।
हौं तौ दीन, दुखित, अति दुरबल, द्वारैं रटत परयौ।
चारि पदारथ दिए, सुदामा तंदुल भेंट धरयौ।
द्रुपद सुता कौ तुम पति राखी, अंबर दान करयौ।
संदोपन सुत तुम प्रभु दीने, विद्यापाठ करयौ।
वेर सूर की निठुर भए प्रभु, मेरी कछु न सरयौ।

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134.राग धनाश्री
आजु हौ एक-एक करि टरिहौ।
कै तुमही कै हमही, माधौ, अपुन भरोसै लरिहौ।
हौं तौ पतित सात पीढिन कौ, पतितै ह्रै निस्‍तरिहौ।
अब हौं उबरि नच्‍यौ चाहत हौं, तुम्‍हैं विरद विन करिहौं।
कत अपनी परतीति नखावत, मैं पायौ हरि होरा।
सूर पतित तवही उठिहै, प्रभु, जब हंसि दैहौ वीरा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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