सूरसागर प्रथम स्कन्ध पृ. 55

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सूरसागर प्रथम स्कन्ध पृ. 55

विनय राग


109.राग बिलावल
महा प्रभु, तुम्‍हें बिरद की लाज।
कृपा-निदान, दानि, दामौदर, सदा संवारन काज।
जब गज-चरन ग्राह गहि राख्‍यो, तबहीं नाथ पुकारयौ।
तजि कै गरुड़ चले अति आतुर, नक्र चक्र करि मारयौ।
निसि-निसि ही रिषि लिए सहस-दस-दुरबासा पग धारयौ।
ततका‍लहिं तब प्रगट भए हरि, राजा-जीव उबारयौ।
हिरनाकुस प्रहलाद भक्त कौं बहुत सासना जारयौ।
रहि न सके, नरसिंह रुप धरि, गहि कर असुर पछारयौ।
दुस्‍सासन गहि केस द्रौपदी नगन करन कौं ल्‍यायौ।
सुमिरत ही ततकाल कृपानिधि, वसन-प्रवाह बढ़ायौ।
मागधपति बहु जीति महीपति, कछु जिय मैं गरबाए।
जीत्‍यौ जरासंघ, रिपु मारयौ, बल करि भूप छुड़ाए।
महिमा अति अगाध, करुनायमय भक्त-हेत हितकारी।
सूरदास पर कृपा करौ अब, दरसन देहू मुरारी।

110.राग धनाश्री
सरन आए को प्रभु, लाज धरिऐ।
सध्‍यौ नहिं धर्म नुचि, सील, तप, व्रत कछू, कहा मुख लै तुम्‍हैं बिनै करिऐ।
कछू चाहौं कहौं, सकुचि मन मैं रहौं, अपने कर्म लखि त्रास आवैं।
यहै निज सार, आधार मेरौं यहै, पतित-पावन विरद वेद गावै।
जन्‍म तै एक टक लागि आसा रही, विषय-विष खात नहिं तृप्ति मानी।
जो छिया छरद करि सकल संतनि तजी, तासु तैं मूढ़-मति प्रीति ठानी।
पाप-भारग जिते सवै कीन्‍हें तिते, वच्‍यौ नहिं काउ जहं सुरति मेरी।
सूर अवगुन भरयौ, आइ द्वारे परयो, तकै गौपाल, अब सरन तेरो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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