सूरसागर प्रथम स्कन्ध पृ. 54

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सूरसागर प्रथम स्कन्ध पृ. 54

विनय राग


107.राम धनाश्री
जन के उपजत दुख किन काटत।
जैसै प्रथम-अषाड़-आंजु-तृन, खेतिहर निरखि उपाटत।
जैसै मीन किलकिला दरसत, ऐसै रहौ प्रभु डाटत।
पुनि पाछैं अब-सिंधु बढ़त है, सूर खाल किन पाटत।

108.राग कान्‍हरी
कीजै प्रभु अपने विरद की लाज।
महा पतित, कबहूँ नहिं आयौ नैकु तिहारै काज।
माया सबल धाम-धन-वनिया बांध्‍यौ हौ इहिं साज।
देखत-सुनत सवै जानत हौ, तऊ ने आयौ बाज।
कहियत पतित बहुत तुम तारे, सत्रवननि सुनी अवाज।
दई न जाति खेवट उतराहै, चाहत चढयौ जहाज।
लीजै पार उतारि सूर कौं महाराज ब्रजराज।
नई न करन कहत प्रभु, तुम हौ सदा गरीब-निवाज।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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