9.राग नट
हरि सौं ठाकुर और न जन कौं।
जिहिं जिहिं बिघि सेवक सुख पावै, तिहिं विधि राखत मन कौ।
भूख भए भोजन जु उदर कौं, तृषा तोय, पट तन कौं।
लम्यौ फिरत सुरभी ज्यौं सुत-संग, औचट गुनि गृह बन कौं।
परम उदार, चतुर चिंतामनि, कोटि कुबेर निधन कौं।
राखत है जन को परतिज्ञा, हाथ पसारत कन कौं।
संकट परै तुरत उठि धावत, परम सुभट निज पन कौं।
कोटिक करै एक नहिं मानै सूर महा कृतघन कौं।
10.राग धनाश्री
हरि सौं मीत न देख्यौ कोई।
विपति-काल सुमिरत, तिहि औसर आनि तिरीछौ होई।
ग्राह बैकुण्ठ, गरुड, तजि, श्री तजि, निकट दास कै आयौ।
दुर्बासा कौ साप निवारयो, अंवरीष-पति राखी।
ब्रह्मलोक-परजंत फिरयौ तहैं देव-मुनी-जन साखी।
लाखागृह तै जरत पांडु-सुत वुधि-बल नाथ, उबारे।
सूरदास-प्रभु अपने जन के नाना त्रास निवारे।