11.राग धनाश्री
राम भक्तवत्सल निज वानौ।
जाति, गोत, कुल, नाम, गनत, नहिं, रंक होइ कैं रानों।
सिव-ब्रह्मादिक कौन जाति प्रभु, हौं अजान नहिं जानौं।
हमता जहाँ तहां प्रभु नाहीं, सो हमता क्यौं मानौं
प्रगट खंभ तै दए दिखाई, जद्यपि कुल कौ दानौ।
रघुकुल राघव कृस्न सदा ही गोकुल कोन्हौं थानौ।
बरनि न जाइ भक्त की महिमा, वारंवार बखानौं।
ध्रुव रजपूत, विदुर दासी-सुत, कौन कौन अरगानौ।
जुग जुग बिरद यहै चलि आयौ, भक्तनि-हाथ विकानौ।
राजसूय मैं चरन पखारे स्याम लिए कर पानौ।
रसना एक, अनेक स्याम-गुन, कहं लगि करौं बखानौ।
सूरदास-प्रभु की महिमा अति, साखी वेद-पुरानौ।
12.राग बिलावल
काहू के कुल तन न बिचारत।
अविगत की गति कहि न परति है, ब्याध-अजामिल तारत।
कौन जाति अरु पांति बिदुर की, ताही कैं पग धारत।
भोजन करत मांगि घर उनकैं, राज-मान-मद टारत।
ऐसे जनम-करम के ओछे, ओछनि हूँ ब्यौहारत।
यहै सुभाव सूर के प्रभु कौ, भक्त-बछल-प्रन पारत।