97.राग सोरठ
अब कैं राखि लेहु भगवान।
हौं अनाथ बैठयौ द्रुम-डरिया, पारधि साधे बान।
ताकैं डर मैं भाज्यौ चाहत, ऊपर ढुक्यौ सचान।
दुहूँ भाँति दुख भयौ आनि यह, कौन उवारै प्रान।
सुमिरत ही अहि डस्यौ पारधी, कर छूटयौ संधान।
सूरदास सर लग्यौ सचानहिं, जय-जय कृपानिधान।
98.राग बिहागरौ
हृदय की कबहुं न जरनि घटी।
बिनु गोपाल बिथा या तन की कैसैं जाति कटी।
अपनी रुचि जित ही जित ऐंचति इंद्रिय-कर्म-गटी।
हौं तित ही उठि चलत कपट लगि, बांधे नैन-पटी।
भूठौ मन, भूठी सब काया, भूठी आरभटी।
अरु भूठनि के बदन निहारत मारत फिरत लटी।।
दिन दिन हीन छीन भई काया दुख-जंजाल जटी।
चिंता कीन्हैं भूख भुलानी, नींद फिरति उचटी।
मगन भयौ माया रस लंपट, समुभ्कत नाहिं हटी।
ताकै मूंड़ चढ़ी नाचति है मीचति नीच नटी।
किंचित स्वाद स्वान-बानर ज्यौं, घातक रीति ठटी।
सूर सुजल सीचियै कृपा निधि, निज जन चरन तटी।