सूरसागर प्रथम स्कन्ध पृ. 50

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सूरसागर प्रथम स्कन्ध-50

विनय राग


99.राग केदारौ
अब कैं नाथ, मोहिं उधारि।
मगन हौं भव-अंबुनिधि मैं, कृपासिंधु मुरारि।
नीर अति गंभीर माया, लोभ-लहरि तरंग।
लिए जात अगाध जल कौं गहे ग्राह अनंग।
मीन इंद्री तनहिं काटत, मोट अघ सिर भार।
पग न इत उत धरन पावत, उरभि मोह सिवार।
क्रोध-दंभ-गुमान-तृष्‍ना पवन अति भकभोर।
नाहिं चितवन देत सुत-तिय, नाम-नौका ओर।
थक्‍यौ बीच, बिहाल, बिहवल, सुनौ करुना-मूल।
स्‍याम भुज गहि काढि लीजै सूर-ब्रज कै कूल।

100.राग सारंग
माधौ जू, मन हठ कठिन परयौ।
बार-बार निसि-दिन अति आतुर, फिरत दसौं दिसि धाए।
ज्‍यौं सुक सेमर-फूल बिलोकत, जात नहीं बिनु खाए।
जुग-जुग जनम, मरन अरु बिछुरन, सब समुभत मत-भेव।
ज्‍यों दिनकरहिं उलूक न मानत, परि आई यह टेव।
हौं कुचालि मति-हीन सकल विधि, तुम कृपालु जग जान।
सूर मधुप निसि कमल-कोप-वस, करौ कृपा-दिन-भान।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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