85.राग धनाश्री
हरि बिनु मीत नहीं कीउ तेरे।
सुनि मन, कहौं पुकारि तोसौं हौं, भजि गोपालहिं मेरे।
या संसार विषय-विष-सागर, रहत सदा सब घेरे।
सूर स्याम बिनु अंतकाल मैं कोउ न आवत नेरे।
86.राग भिभ्क्तौटी
जा दिन मन पंछी उडि जैहै।
ता दिन तेरे तन-तरुवर के सबै पात भ्क्तरि जैहैं।
या देही कौ गरब न करियै, स्यार-काग-गिघ खैहैं।
तीननि मैं तन कृभि, कै विष्टा, कै ह्रै खाक उड़ैहै।
कहैं वह नीर, कहां वह शोभा, कहं रंग-रुप दिखैहै।
जिन लोगनि सौं नेह करत है, तेई देखि घिनैहैं।
घर के कहत सवारे काढ़ौ, भूत होइ धरि खैहैं।
जिन पुत्रनिहिं बहुत प्रतिपाल्यौ, देवी-देव मनैहैं।
तेई लै खोपरी बांस दै सीस फोरि बिखरैहैं।
अजहूँ मूढ़ करौ सतसंगति, संतनि मैं कछु पैहै।
नर-बपु धारि नाहिं जन हरि कों, जम की मार सो खैहै।
सूरदास भगवंत-भजन बिनु बृथा सु जनम गंवैहै।