सूरसागर प्रथम स्कन्ध पृ. 42

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सूरसागर प्रथम स्कन्ध-42

विनय राग


83.राग सोरठ
निपट कपट की छांडि अटपटी, इंद्रिय बस राखहि किन पांचौ।
सुमिरन कथा सदा सुखदायक, विषधर विषय-विषम-विष बांचौ।
सूरदास प्रभु हित कै सुमिरौ जौ, तौ आनंद करिकै नांचौ।

84.राग टोड़ी
हरि बिन अपनौ को संसार।
माया-लोभ-मोह हैं चांडे काल-नदी की धार।
ज्‍यों जन संगति होति नाव मैं, रहति न परसै पार।
तैसैं धन-दारा-सुख-संपति, बिछुरत लगै न बार।
मानुष-जनम, नाम नरहरि कौ, मिलै न बारंबार।
इहिं तन छन-भंगुर के कारन, गरबत कहा गंवार।
जैसै अंधौ अंध कूप मैं गनत न खाल पनार।
तैसेहिं सूर बहुत उपदेसैं सुनि सुनि गे कै बार।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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