63.राग सारंग
हे मन, अजहूँ क्यौं न सम्हारै।
माया-मद मैं भयो मत्त कत जनम बादिहीं हारै।
तू तौ विषया-रंग रंग्यो हैं, बिन धोए क्यों छूटै।
लाख जतन करि देखौ, तैसैं बार-बार विष घूंटै।
रस लै-लै औटाइ करत गुर, डारि देत है खोई।
फिरि औटाए स्वाद जात है, गुर तैं खांड न होई।
सेत, हरौ, रातौ अरु पियरो रंग लेत है धोई।
कारौ अपनौ रंग न छांड़ै, अनरंग कवहुं न होई।
कुबिजा भई स्याम-रंग-राती, तातैं सोभा पाई।
ताहि सबै कंचन सम तौलै अरु श्री निकट समाई।
नंद-नंदन-पद कमल छांडि कै माया हाथ बिकानौ।
सूरदास आपुहि समुक्तावै, लोग बुरौ जिनि मानौ।
64.राग धनाश्री
जनम साहिवी करत गयौ।
काया-नगर बड़ी गंजाइस, नाहिंन कछु बढ़यौ।
हरि कौ नाम, दान खोटे लौं भकि-भकि डारि दयौ।
विषया-गांव अमल कौ टोटौ, हंसि-हंसि कै उमयौ।
नैन-अमीन, अधर्मिनि के बस, जहं कौ तहां छयौ।
दगाबाज कुतवाल काम रिपु, सरबस लूटि लयौ।
पाप उजीर कह्यौ सोइ मान्यौ धर्म-सुधन लुटयौ।
चरनोदक कौं छांडि सुधारस, सुरा-पान अंचयौ।
कुबुधि-कामन चढ़ाइ कोप करि, बुधि-तरकस रितयौ।
सदा सिकार करत मृग-मन कौं, रहत मगन भुरयौ।
धेरयौ आइ कुटुम-लसकर मैं, जम अहदी पठयौ।
सूर नगर चौरासी भ्रमि-भ्रमि, घर-घर कौ जु भयौ।