सुनहु सखी मोहन कह कीन्हौ।
इक इक सौं यह बात कहति, लियौ दान कि मन हरि लीन्हौ।।
यह तौ नाहिं बदी हम उनसौं, बूझहु धौं यह बात।
चक्रित भई बिचार करत यह, बिसरि गई सुधि गात।।
उमचि जातिं तबहीं यब सकुचति, बहुरि मगन ह्वै जातिं।
सूर स्याम सौ कहौं कहा यह, कहत न बन लजातिं।।1611।।