व्रज तै द्वै रितु पै न गई।
ग्रीषम अरु पावस प्रवीन हरि, तुम बिनु अधिक भई।।
उर्ध उसास समीर नैन घन, सब जल जोग जुरे।
बरषि प्रगट कीन्हे दुख दादुर, हुते जो दूरि दुरे।।
विषम वियोग जु वृष दिनकर सम, हित अति उदौ करै।
हरि-पद-विमुख भए सुनि ‘सूरज’, को तन ताप हरै।।4117।।