व्रज तै द्वै रितु पै न गई -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

Prev.png
राग गौरी


व्रज तै द्वै रितु पै न गई।
ग्रीषम अरु पावस प्रवीन हरि, तुम बिनु अधिक भई।।
उर्ध उसास समीर नैन घन, सब जल जोग जुरे।
बरषि प्रगट कीन्हे दुख दादुर, हुते जो दूरि दुरे।।
विषम वियोग जु वृष दिनकर सम, हित अति उदौ करै।
हरि-पद-विमुख भए सुनि ‘सूरज’, को तन ताप हरै।।4117।।

Next.png

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः