लोचन चोर बाँधे स्याम।
जातही उन तुरत पकरे, कुटिल अलकनि दाम।।
सुभग ललित कपोल आभा गिधे, दाम अपार।
ओर अँग-छवि-लोग जागे, अब नही निरबार।।
सँग गए वै सबै अटके, लटकि अंग अनूप।
एक एकहिं नहीं जानत, परे सोभा कूप।।
जो जहाँ, सो तहाँ डारयौ, नेकु तन सुधि नाहिं।
'सूर' गुरुजन डरहिं मानत, यहै कहि पछिताहिं।।2271।।