राम न सुमिरयौं एक घरी।
परम भाग सुक्रित के फल तै सुंदर देह धरी।
जिहिं जिहिं जोनि भ्रम्यौ संकट-बस, सोइ-सोइ सुखनि भरी।
काम-क्रोध-मद-लोभ-गरब मैं बिसरयौ स्याम हरी।
भैया-वंध-कुटुंब धनेरे, तिनतैं कछु न सरी।
लै देही घर-बाहर जारी, सिर ठोंकी लकरी।
मरती बेर सम्हारन लागे, जो कुछ गाड़ि धरी।
सूरदास तैं कछू सरी नहिं, परी काल-फँसरी।।71।।