रानिनि परबोधि स्याम महर द्वार आए।
कालनेमि बस उग्रसेन सुनत धाए।।
चरननि धुकि परयौ आइ त्राहि नाथा।
बहुतै अपराध परे छमहु मैं सनाथा।।
महाराज श्री मुख कहि लियौ उर लगाई।
हमकौ अपराध छ्मौ करी हम ढिठाई।।
तबही सिघासन पै उग्रसेन धारे।
छत्र सिर धराइ चँवर अपने कर ढारे।।
ठाढ़े आधीन भए, देव देव भाषे।
अपने जन कौ प्रसाद, सादर सिर राखे।।
मोकौ प्रभु इती कहा विस्व भरन स्वामी।
घट घट की जानत हौ तुम अंतरजामी।।
तौ फिरि नृप कहत कहा तुमकौ यह केती।
सेवा तुम जोती करी दैहौ पुनि तेती।।
रजक धनुष गज मल्लनि कंस मारि काजा।
'सूरज' प्रभु कीन्हौ तब उग्रसेन राजा।।3084।।