या बिनु होत कहा ह्याँ सूनौ।
लै किन प्रगट कियौ प्राची दिसि, बिरहिनि कौ दुख दूनौ।।
सब निरदै सुर असुर सैल, सखि सायर सर्प समेत।
काहु न कृपा करी इतननि मैं, त्रिय तनबन दव देत।।
धन्य कुहू, बरषा रितु, तमचुर, अरु कमलनि कौ हेत।
जुग जुग जीवै जरा बापुरी, मिलै राहु औ केत।।
चितै चंद तन सुरति स्याम की, बिकल भई ब्रजबाल।
'सूरदास' अजहूँ इहिं औसर, काहे न मिलत गुपाल।। 3355।।