हर कौ तिलक हरि बिनु दहत।
वै कहियत उडुराज अमृत मय, तजि सुभाव सो मोहिं निबहत।।
कत रथ थकित भयौ पच्छिम दिसि, राहु गहनि लौ मोहिं गहत।
छपौ न छीन होत सुनि सजनी, भूमि-भवन-रिपु कहाँ रहत।।
सीतल सिंधु जनम जा केरौ, तरनि तेज होइ कह धौ चहत।
'सूरदास' प्रभु तुम्हरे मिलन बिनु, प्रान तजतिं, यह नाहिं सहत।। 3354।।