यह ऋतु रूसिबे की नाही।
बरषत मेघ मेदिनी कै हित, प्रीतम हरषि मिलाही।।
जेती बेलि ग्रीष्म ऋतु डाही, ते तरवर लपटाही।
जे जल बिनु सरिता ते पूरन, मिलन समुद्रहिं जाही।।
जोबन धन है दिवस चारि कौ, ज्यौ बदरी की छाही।
मैं दंपति-रस-रीति कही है, समुझि चतुर मन माही।।
यह चित धरि री सखी राधिका, दै दूती कौ बाही।
'सूरदास' उठि चलि री प्यारी, मेरै संग पिय पाही।।2745।।