यहै प्रकृति परि आई ऊधौ अनुदिन या मन मेरै।
जौ कोउ कोटि जतन करौ कैसैहु, फिरति नही मति फैरै।।
जा दिन तै जसुदा गृह जनमे, सुंदर कुँअर कन्हाई।
ता दिन तै व दरस परस विनु, और न कछु सुहाई।।
क्रीड़त हँसत कृपा अवलोकत, छिन समान दिन जाते।
परम तृप्ति सबहीं अँग होती, लोचन पै न अघाते।।
जागत सोवत सपन स्याम घन, सुदर तन अति भावै।
सु कहि ‘सूर’ ता कमलनैन बिनु, वातनि क्यौ बनि आवै।।4031।।