मैं भरुहाऐं लागत हौं!
कनक-कलस-रस मोहिं चखावहु, मैं तुमसौं माँगत हौं।।
उहीं ढंग तुम रहे कन्हाई, उठीं सबै झिझकारि।
लेहु असीस सबनि के मुख तैं, कतहिं दिवावति गारि।।
नीकैं देहु हार दधि-मटुकी, बात कहन नहिं जानत।
कैहैं जाइ जसोदा सौं प्रभु सूर अचगरी ठानत।।1483।।