माधौं मोहि करौ बृंदाबन-रेनु।
जिहिं चरननि डोलत नँद-नंदन, दिन-प्रति वन-वन चारत धेनु।
कहा भयौ यह देव-देह धरि, अरु ऊँचै पद पाऐं ऐनु।
सब जीवनि लै उदर माँझ प्रभु महा प्रलय-जल करत हौ सैनु।
हम तैं धन्य सदा वै तृन-द्रुम, बालक-बच्छ-विषानऽरु बेनु।
सूर स्याम जिनकै संग डोलत, हँसि बोलत, मथि पथि पीवतु फेनु।।489।।