(मन मोहन ललना मन हरयौ हो।)
गृह गृह तै सुंदरि चलि देखन, श्रीब्रजराज कुमार।
देखि बदन विथकित भई, मोहन ठाढ़े सिंह दुवार।।
डिमडिम, पटह, ढोल, डफ, बीना, मृदंग चंग अरु तार।
गावत प्रभृति सहित श्रीदामा, बाढ्यौ रंग अपार।।
इत राधिका सहित चंद्रावलि, ललिता घोष अपार।
उत मोहन हलधर दोउ भैया, खेल मच्यौ दरबार।।
रत्नजटित पिचकारी कर लिये, छिरकति घोष कुमारि।
मदन मोहन पिय रँग रस माती, कछुव न अंग सम्हारि।।
मोहन प्यारी सैन दै हलधर, पकराए तिन्ह जाइ।
आपुन हँसत पीत पट मुख दिए, आए आँखि अँजाइ।।
बहुरि सिमिटि ब्रजसुंदरि छल करि, मोहन पकरे जाइ।
करति अधर-रस-पान पिया कौ, मुरली लई छंड़ाई।।
परिवा सिमिटि सकल ब्रजवासी, चले जमुनजल न्हान।
बारि कुँवर पर पट नँदरानी, दिये बिप्रनि बहु दान।।
द्वितिया पाट सिंहासन बैठे, चमर छत्र सिर डार।
'सूरज' प्रभु पर सकल देवता, बरषत सुमन अपार।।2906।।