मधुकर अनरुचि कैसे गावै ।
चौपद होइ ताहि समुझैयै, पटपद को समुझावै ।।
मुख ओरै अंतरगति औरै, औरै ज्ञान दृढ़ावै ।
दारु काटि अलि सदन संचरे, सतपत्रहिं न सतावै ।।
ल्याए जोग बेचिबे कारन, ब्रज मैं नाहिं बिकावै ।
'सूरदास' ऐसौ को गाहक, लै सिवपुरी पठावै ।। 3964 ।।