ब्रज-ग्वैंड़े कोउ चलन न पावत।
ग्वाल सखा सँग लीन्हे डोलत दै-दै हाँक जहाँ तहँ धावत।।
काहू की इँडुरी फटकारत, काहू की गगरी ढरकावत।
काहू कौं गारी दैं भाजत, काहू कौं अंकम भरि लावत।।
काहूँ नहिं मानत ब्रज-भीतर, नंद महर कौ कुंवर कहावत।
सूर स्याम नटवर-बपु काछे, जमुना कैं तट मुरलि बजावत।।1434।।