बिरही कहँ लौ आपु सँभारै।
जब तै गंग परी हरि पग तै, बहिबौ नहीं निवारै।।
नैननि तै बिछुरे जु भ्रमत है, ससि अजहूँ तन गारै।
रोम ते बिछुरि, कमल कंटक भए, सिंधु भए जल छारै।।
वैन तै बिछुरि, अविधि बिधिहूँ भई, वेदहिं को निरुवारे।
'सूरदास' जे सब अंग बिछुरी, तिनहिं कौन उपचारै।।3778।।