कहहु कहा हम तै बिगरी।
कौनै न्याउ जोग लिखि पठए, हँसि सेवा कछुवै न करी।।
पाषंड प्रीति करी नँदनंदन, अवधि अधार हुती सो टरी।
मुद्रा जटा ऊधौ लै आए, ब्रजबनिता पहिरौ सगरी।।
जाति सुभाउ मिटै नहि सजनी, अंत तऊ उबरी कुबरी।
'सूरदास' प्रभु बेगि मिलहु अब, नातरु प्रान जात उगरी।।3777।।