बाल विनोद भावती लीला 2 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग सारंग


आगैं बृच्छ फरै जो बिष-फल, बृच्छ बिना किन सरई।
याहि मारि, तोहिं और बिवाहौं, अग्र-सोच क्यौं मरई।
यह सुनि सकल देव-मुनि भाष्यौं, राय, न ऐसी कीजै।
तुम्हरे मान्य बसुदेव-देवकी, जीव-दान इहिं दीजै।
कीन्यौ जज्ञ होत हैं निष्फल, कह्यौ हमारौ कीजै।
याकैं गर्भ अवतरैं जे सुत, सावधान ह्वै लीजै।
पहिलौ पुत्र देवकी जायौ, लै बसुदेव दिखायौ।
बालक देखि कंस हँसि दीन्यौै, सब अपराध छमायौ।
कंस कहा लरिकाई कीनी, कहि नारद समुझायौ।
जाकौ भरम करत हौ राजा, मति पहिलैं सो आयौ।
यह सुनि कंस पुत्र फिरि माँग्यौ, इहिं विधि सबनि सँहारौ।
तब देवकी भई अति ब्याकुल कैसैं प्रान प्रहारौं।
कंस बंस को नास करत है, कहँ लौं जीव उबारौं।
यह बिपदा कब मेटहि श्रीपति, अरु हौं काहि पुकारौं।
धेनु-रूप धरि पुहुमि पुकारी, सिव-बिरंचि कैं द्वारा।
सब मिलि गए जहाँ पुरुषोत्तम, जिहिं गति अगम अपारा।
छीर-समुद्र-मध्य तैं यौं हरि, दीरन बचन उचारा।
उघरौं धरनि, असुर-कुल मारौं, धरि नर-तन-अवतारा।
सुर, नर, नाग तथा पसु-पच्छी, सब कौं आयसु दीन्हौ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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