बहुरौ हो ब्रज बात न चाली।
वहै सु एक वेर ऊधौ कर, कमल नयन पाती दे घाली।।
पथिक तिहारे पा लागति हौ, मथुरा जाहु जहाँ वनमाली।
कहियौ प्रगट पुकारि द्वार ह्वै, कालिंदी फिरि आयौ काली।।
तब वह कृपा हुतो नँदनंदन रुचि रुचि रसिक प्रीति प्रतिपाली।
माँगत कुसुम देखि ऊँचे द्रुम, लेत उछंग गोद करि आली।
जब वह सुरति होति उर अतर, लागति काम वान की भाली।
'सूरदास' प्रभु प्रीति पुरातन सुमिरत, दुसह सूल उर साली।। 4247।।