पपीहा माई बोलि, बान भरि मारी।
बिसरी सुरति दिवाइ स्याम की, चमकि उठी निसि कारी।।
तुम बिछुरे घन स्याम मनोहर, कौन करै रखवारी।
तन भयौ लंक, बिरह भयौ बनचर, इहिं बियोग हम जारी।।
दादुर मोर कोकिला चातक, ये जीते हम हारी।
कहि अब ‘सूर’ होत कब आवन, बैठि बिरछ की छाँ री।। 158 ।।