नैना अतिही लोभ भरे।
संगहिं संग रहत वै जहँ तहँ, बैठत चलत खरे।।
काहू की परतीति न मानत, जानत सबहिनि चोर।
लूटत रूप अखूट दाम को, स्याम बस्य यौ भोर।।
बड़े भागमानी यह जानी, कृपिन न इनतै और।
ऐसी निधि मैं नाउँ न कीन्हौ, कहँ लैहै कहँ ठौर।।
आपुन लेहिं औरहूँ देते, जस लेते संसार।
'सूरदास' प्रभु इनहिं पत्याने, को कहै बारंबार।।2266।।