जद्यपि नैन भरत ढरि जात -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग बिलावल


जद्यपि नैन भरत ढरि जात।
इकटक नैकु नहीं कहुँ टारत, तृप्ति न होत अघात।।
अपनैही सुख मरत निसादिन, जद्यपि पूरन गात।
लै लै भरत आपनै भीतर, औरहिं नही पत्यात।।
जोइ लीजै सोई है अपनौ, जैसै चोर भगात।
सुनहु 'सूर' ऐसे ये लोभी, धनि इनके पितु मात।।2265।।

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