नाहिनै अब ब्रज नंद कुमार।
परम चतुर सुदर सुजान सखि, या तनु के प्रतिहार।।
रूप लकुट रोके जु रहत अलि, अनु दिन नैननि द्वार।
ता दिन तै उरभवन भयौ सखि सिवरिपु की सचार।।
दुख आवत कछु अटक न मानत, सूनौ देखि अगार।
असु उसास जात अंतर तै, करत न कछू विचार।।
निसा निमेष कपाट लगे बिनु, ससि मूसत सत सार।
‘सूर’ प्रान लटि काज न छाँड़त, सुमिरि अवधि आधार।। 3386।।