नारद कहि समुझाइ कंस नृपराज कौं 3 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग धनाश्री



यह जबहीं हरि सौं सुनी, नंद मनहिं पतियाइ।
गगन गिरत जो सँग रह्यौ, सो करि लेइ सहाइ।
नंदहिं यह समुझाइ कान्ह, उठि खेलन धाए।
जहँ ब्रज-बालक हुते, तुरत तहँ आपुन आए।
गोप-सुतनि सौं यह कह्यौ, खेलैं गेंद मँगाइ।
श्रीदामा यह सुनतहीं घर तैं ल्याए जाइ।
सखा परस्पर मारि करैं, कोउ कानि न मानै।
कौन बड़ौ को छोट, भेद अनुभेद न जानैं।
खेलत जमुना-तट गए, आपुहिं ल्याए टारि।
लै श्रीदामा हाथ तैं, गेंद दयौ दह डारि।
श्रीदामा गहि फेंट कह्यौ, हम तुम इक जोटा।
कहा भयौ जौ नंद बड़े, तुम तिनकै ढोटा।
खेलत मैं कह छोट बड़, हम हुँ महर के पूत।
गेंद दियैं ही पै बनै, छाँड़ि देहु मति-धूत।
तुम सौं धूत्यौ कहा करौं, धूत्यौ नहिं देख्यौ।
प्रथम पूतना मारि काग सकटासुर पेख्यौ।
तृनावर्त पटक्यौ सिला, अधा, बका संहारि।
तुम ता दिन सँगहीं रहे, धूत न कहत सम्हारि।
टेढ़े कहा बतात, कंस कौं, देहु कमल अब।
कालिहिं पठए माँगि पुहुप अब ल्याइ देहु जब।
बहुत अचगरी जिनि करौ, अजहूँ तजौ झवारी।
पकरि कंस लै जाइगौ, कालिहिं परै खंभारि।
कमल पठाऊँ कौटि, कंस कौ दोष निवारौं।
तुम देखत ही जाउँ, कंस जीवत धरि मारौं।
फेंट लियौ तब झटकि कै, चढ़े कदम पर जाइ।
सखा हँसत ठाढ़े सबै, मोहन गए पराइ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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