नारद कहि समुझाइ कंस नृपराज कौं 4 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

Prev.png
राग धनाश्री



श्रीदामा चले रोइ जाइ कहि हौं नँद-आगे।
गेंद लेहु तुम आइ, मोहिं डरपावन लागे।
यह कहि कूदि परे सलिल, कीन्हे नटवर-साज।
कोमल तन धरि कै गए, जहँ सोवत अहिराज।
इहिं अंतर नँद-घरनि कह्यौ हरि भूखे ह्वै हैं।
खेलत तैं अब आइ, भूख कहि मोहिं सुनैहैं।
अति आतुर भीतर चली, जेंवत साजन आप।
छींक सुनत कुसगुन कह्यौ, कहा भयौ यह पाप।
अजिर चली पछितात छीकैं कौ दोष निवारन।
मंजारी गई काटि बाट, निकसत तब बारन।
जननी जिय ब्याकुल भई कान्ह अवेर लगाइ।
कुसगुन आजु बहुत भए, कुसल हैं दोउ भाइ।
स्याम परे दह कूदि, मातु-जिय गयौ जनाई।
आतुर आए नंद घरहिं बूझत दोउ भाई।
नंद, घरनि सौं यह कहत, मोकौं लगत उदास।
इहिं अंतर हरि तहँ गए, जहँ काली कौ बास।
देख्यौ पन्नग जाइ अतिहिं निर्भय गयौ सोवत।
बैठी तहँ अहि-नारि, डरो बालक कौ छोवत।
भागि-भागि सुत कौन कौ, अति कोमल तव गात।
एक फूंक कौ नाहिं तू बिस-ज्वाला अति तात।
तब हरि कह्यौ प्रचारि, नारि, पति देइ जगाई।
आयौ देखन याहि, कंस मोहिं दियौ पठाई।
कंस कोटि जरि जाहिंगे, विष की एक फुँकार।
कही मेरी करि जाहि तू अति बालक सुकुमार।
इहिं अंतर सब सखा जाइ ब्रज नंद सुनायौ।
हम सँग खेलत स्याम जाइ जल माँझ धँसायौ।
बूड़ि गयौ, उचक्यौ नहीं ता बातहिं भई वेर।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः