नंदनँदन बस कीन्हे राधा, भवन गए चित नैकु न लागत।
स्यामा स्याम रूप मंदिर सुख, अंतर तै सो नैकु न त्यागत।।
जा कारन बैकुंठ बिसारत, निज अस्थल मन मैं नहि भावत।
राधा कान्ह देह धरि पुनि पुनि, जा सुख कौ बृंदाबन आवत।।
बिछुरत मिलन बिरह-सँजोग-सुख, नूतन दिन दिन प्रीति प्रकासत।
'सूर' स्याम-स्यामा-विलास-रस, निगम नेति कहि कहि नित भाषत।।2185।।